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देहरादून में त्रिपुरा के छात्र की हत्या: पुलिस ने नस्लीय हमले से किया इनकार, बयान और आरोपों में टकराव



देहरादून में त्रिपुरा के रहने वाले 24 वर्षीय छात्र अंजेल चकमा की मौत के मामले ने एक बार फिर उत्तर-पूर्वी राज्यों से आए छात्रों की सुरक्षा और सम्मान को लेकर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। इस मामले में पुलिस ने जहां इसे नस्लीय हिंसा मानने से इनकार किया है, वहीं छात्र संगठनों और परिजनों के आरोप कुछ और ही कहानी बयां करते हैं।

पुलिस के अनुसार, यह घटना किसी पूर्व नियोजित दुश्मनी या नस्लीय नफरत का नतीजा नहीं थी। देहरादून के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक अजय सिंह का कहना है कि घटनास्थल पर मौजूद कुछ युवक आपस में मजाकिया लहजे में आपत्तिजनक टिप्पणियां कर रहे थे, जिन्हें गलत तरीके से छात्रों के खिलाफ समझ लिया गया। इसी भ्रम की स्थिति में विवाद बढ़ा और हिंसक झड़प हो गई। पुलिस का यह भी दावा है कि घटना में शामिल एक युवक स्वयं उत्तर-पूर्वी राज्य से है, इसलिए इसे नस्लीय हमला नहीं कहा जा सकता।

हालांकि, प्राथमिकी और प्रत्यक्षदर्शियों के बयान इस दावे से मेल नहीं खाते। पुलिस रिकॉर्ड के अनुसार, 9 दिसंबर की शाम अंजेल चकमा अपने भाई माइकल के साथ बाजार गए थे। आरोप है कि वहां कुछ नशे में धुत लोगों ने उनके खिलाफ जातिसूचक और अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल किया। जब अंजेल ने इसका विरोध किया, तो उन पर चाकू और लोहे की रॉड से हमला किया गया। इस हमले में माइकल के सिर पर गंभीर चोट आई, जबकि अंजेल की गर्दन और पेट में गहरे घाव लगे। कई दिनों तक इलाज चलने के बाद 26 दिसंबर को अंजेल ने दम तोड़ दिया।

इस मामले में अब तक पांच आरोपियों को गिरफ्तार किया जा चुका है, जबकि एक आरोपी नेपाल भागने में सफल रहा। वहीं, उत्तर-पूर्वी छात्र संघ के नेता ऋषिकेश बरुआ ने इस घटना को व्यापक सामाजिक समस्या से जोड़ा है। उनका कहना है कि देहरादून समेत कई शहरों में उत्तर-पूर्वी छात्र अक्सर भाषा, पहचान और रंग-रूप को लेकर भेदभाव का सामना करते हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि छात्रों से यह साबित करने को कहा गया कि वे भारतीय हैं और हिंदी बोल सकते हैं, जिसके बाद विवाद ने हिंसक रूप ले लिया।

यह घटना केवल एक आपराधिक मामला नहीं, बल्कि देश की विविधता, सहिष्णुता और सामाजिक संवेदनशीलता की भी परीक्षा बन गई है।

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